सोलहवाँ सूक्त

 

समस्त स्पृहणीय कल्याणके लानेवालेके प्रति

 

    [ ऋषि मानवमें स्थित भागवत संकल्पकी इस रूपमें स्तुति करता है कि वह एक होता [ हविर्दाता ]  और पुरोहित (प्रतिनिधि) है जो प्रकाश, शक्ति, अन्तःस्फूर्त ज्ञान एवं प्रत्येक वरणीय कल्याण लाता है; क्योंकि वह एक अभीप्सु है जो कार्योंके द्वारा अभीप्सा करता है और जिसमें सब देवोंकी शक्ति और उनके बलका परिपूर्ण वैभव विद्य-मान है । ]

बृहद् वयो हि भानवेऽर्चा देवायाग्नये ।

यं मित्र न प्रशस्तिभिर्मर्तासो दधिरे पुर: ।।

 

(भानवे) उस भास्वर ज्योतिके प्रति, (देवाय) उस देवके प्रति (अग्नये) संकल्पाग्निके प्रति तू (बृहत् वय:) विशाल आविर्भाव का (अर्च) शब्द द्वारा स्तुतिगान कर, (यं) जिसको (मर्तास:) मर्त्य (प्रशस्तिभि:) उसके देवत्वके अनेकों वर्णन करनेवाली वाणियोंसे (मित्र न) मित्र1 के रूपमें (पुर: दधिरे) अपने सामने रखते हैं ।

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स हि द्युभिर्जनानां होता दक्षस्य बाह्वो: ।

वि हव्यमग्निरानुषग्भगो न वारमृण्वति ।।

 

(स: हि जनाना होता) वही संकल्परूप अग्निदेव मनुष्योंकी भेंटको वहन करनेवाला पुरोहित है । (बाहवो:) अपनी दोनों भुजाओंमें (दक्षस्य द्युभि:) विवेकशील मनकी दीप्तियोसे वह (हव्यम् आनुषक् ऋण्वति) उनकी

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1. मित्र । अग्नि सब देवोंको धारण किये है और स्वयं सब देव है ।

   मर्त्योंको दिव्य संकल्पकी क्रियामें प्रकाश और प्रेमको, सच्चे ज्ञान

   एवं सच्चे अस्तित्वके सामंजस्यको अर्थात् मित्र-शक्तिको खोजना

   है, इसी रूपमें दिव्य संकल्पाग्निको यज्ञके पुरोहितके तौरपर मानव

   चेतनाके अग्रभागमें स्थापित करना है ।

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समस्त स्पृहणीय कल्याणके लानेवालेके प्रति

 

वियोंकी अविच्छिन्न परम्पराको उस पार ले जाता है1 और (भग: न) दिव्य भोक्ता2के रूपमें (वारम् ऋण्वति) मनुष्यके कल्याणकी ओर गति करता है ।

अस्य स्तोभे मघोन: सख्ये वृद्धशोचिष: ।

विश्वा यस्मिन् तुविष्वणि समर्ये शुष्ममादधु: ।।

 

(वृद्धशोचिष: अस्य) जब वह अग्निदेव पवित्रताकी अपनी ज्वालाको बढ़ा लेता है तब उसके (स्तोमे) स्तुतिगीतमें और (सख्ये) उसकी मित्रतामें ही (मघोन:) प्रचुर ऐश्वर्यके सब प्रभु3, सब देव अवस्थित होते है, क्योंकि (यस्मिन् तुवि-स्वनि विश्वा) उसकी अनेकों वाणियोंकी ध्वनिमें सभी पदार्थ विद्यमान है । (अर्ये) मानवके कार्योमें अभीप्सा करनेवाले उस देवपर (शुष्मं सम् आदधु:) उन्होंने अपनी शक्तिका सब भार डाल दिया है ।

अधा ह्मग्न एषां सुवीर्यस्य मंहना ।

तमिद् यहं न रोदसी परि श्रवो बभूवतु: ।।

 

(अध हि) अब भी (अग्ने) हे संकल्पशक्ते ! (एषां सुवीर्यस्य मंहना) उनकी समग्र शक्तिका पूरा प्राचुर्य हो । (त यव्ह्मं परि) इस शक्तिशाली

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1. पुरोहितके रूपमें, यश में प्रतिनिधिरूप पुरोहित, यज्ञकी यात्राके रथके

  नेताके रूपमें । भगवन्मखी कार्यके पथ-प्रदर्शन और सतत संचालनके

  लिए वह हमारी सब शक्तियोंका नेता बनकर हमारी चेतनाके अग्रभागमें

  स्थित रहता है ताकि इममें कोई वाधा न हों और यज्ञकी व्यवस्थामें,

  देवोंकी ओर उसकी प्रगतिकी समुचित क्रमिक अवस्थाओंमें एवं सत्यके

  कालों और ऋतुओंके अनुसार इसकी क्रियाओंको यथावत् स्थान देनेमें

  कोई अन्तराल न रहे ।

2.भागवत संकल्प भोक्ता भग, मित्रकी भ्रातृशक्ति, बन जाता है

 जो सत्ताके समस्त आनन्दका आस्वादन करती है, किन्तु ऐसा वह मित्रकी

 विशुद्ध विवेक-शक्तिके द्वारा तथा दिव्य जीवनके प्रकाश, सत्य व सामं-

 जस्यके अनुसार ही करती है ।

3.देव; भगवती शक्ति अन्य सभी दिव्य शक्तियोंको अपने अन्दर समाए

 हुए है और उनके कार्य-व्यापारमें उन्हें सहारा देती है; अतः अन्य सब

 देवोंकी शक्ति उसी में निहित है ।

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संकल्पबलके चारों ओर (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (श्रव: न) मानों अन्तःस्फुरित ज्ञान1की एकात्मक वाणी (बभूवतु:) बन गये हैं ।

नू न एहि वार्यमग्नैं गृणान आ भर ।

ये वयं ये च सूरय: स्वस्ति धामहे सचोतैधि पृत्सु नो वृधे ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्तिरूप अग्निदेव ! (गृणान नः आ इहि नु) हमारे वचनोंसे स्तुति किया हुआ तू हमारे पास अभी आ और (नः वार्यम् आ भर) हमारा अभिलषित कल्याण हमारे पास ले आ । (ये वयं ये च सूरय:) हम जो यहाँ हैं और वे जो ज्ञानके प्रकाशमय स्वामी हैं (स्वस्ति धामहे) इकट्ठे मिलकर अपनी सत्ताकी उस आनन्दपूर्ण स्थितीकी नींव डालें । (उत स:) और वह तू (नः पृत्सु) हमारे संग्रामोंमें (एधि) हमारे साथ अभियान कर ताकि (वृधे) हम अभिवृद्धि प्राप्त करें ।

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 1. संपूर्ण भौतिक और संपूर्ण मानसिक चेतना एक ऐसे ज्ञानसे परिपूर्ण हो

   जाती हैं जो अतिमानसिक स्तरसे उनके अंदर प्रवाहित होता है

   मानों वे दिव्य-द्रष्टा संकल्पके चारों ओर अतिमानसिक प्रकाश तथा

   क्रियामें परिणत हो जाती हैं क्योंकि बह अपने रूपान्तरके कार्यके लिए

   उनके अन्दर सर्वत्र गति करता है ।

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